*विश्व प्रसिद्ध श्री बदरीनाथ धाम के कपाट खुले।अलौकिक अदभुत फ़ोटो दर्शन । सैकड़ों चट्टियां जो सारे पर्वतीय क्षेत्र के लोगों को इस तीर्थ/पर्यटन उद्योग से जोड़ती की महत्वपूर्ण भूमिका ।
विश्व प्रसिद्ध श्री बदरीनाथ धाम के कपाट खुले
भगवान बदरीविशाल के कपाट आज शक संवत् 1942, ज्येष्ठ, कृष्ण अष्टमी, शुक्रवार, विक्रम संवत् 2077। सौर ज्येष्ठ मास प्रविष्टे 02, तदनुसार 15 मई सन् 2020 ई०। सूर्य उत्तरायण, उत्तर गोल, ग्रीष्म ऋतु को प्रातः 4•30 पर खोल दिये गये ।
इस सृष्टि के पालनहार बदरीविशाल से प्रार्थना है कि सम्पूर्ण जगत का कल्याण करते हुए वैश्विक महामारी करोना से मुक्ति प्रदान करेंगे ।
जय बदरीविशाल।
श्री बदरीनाथ धाम को दानी दाताओं के सहयोग से 10 क्विंटल फूलों से सजाया गया था। बिजली की रोशनी से जगमगाया मंदिर।
कपाट खुलने के अवसर पर रावल, सहित कपाट खुलने की प्रक्रिया से जुड़े लोग रहे मौजूद।श्री बदरीनाथ धाम में पहली पूजा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नाम से।
प्रदेश के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत सहित पर्यटन - धर्मस्व मंत्री सतपाल जी महाराज ने श्री बदरीनाथ धाम के कपाट खुलने पर शुभकामनाएं दी हैं।
शुक्रवार, जेष्ठ माह, कृष्ण अष्टमी तिथि, कुंभ राशि धनिष्ठा नक्षत्र, ऐंद्रधाता योग के शुभ मुहूर्त पर कपाट खुले।
प्रात: तीन बजे से श्री बदरीनाथ धाम में कपाट खुलने की प्रक्रिया शुरू होने लगी। देवस्थानम बोर्ड के अधिकारी/ सेवादार -हक हकूकधारी मंदिर परिसर के निकट पहुंच गये। श्री कुबेर जी बामणी गांव से बदरीनाथ मंदिर परिसर में पहुंचे तो रावल जी एवं डिमरी हक हकूकधारी भगवान के सखा उद्धव जी एवं गाडू घड़ा तेल कलश लेकर द्वार पूजा हेतु पहुंचे। वैदिक मंत्रों के उच्चारण के साथ द्वार पूजन का कार्यक्रम संपन्न हुआ तत्पश्चात प्रात: 4 बजकर 30 मिनट पर रावल ईश्वरी प्रसाद नंबूदरी द्वारा श्री बदरीनाथ धाम के कपाट खोल दिये गये। श्री बदरीनाथ मंदिर के कपाट खुलते ही माता लक्ष्मी जी को मंदिर के गर्भ गृह से रावल जी द्वारा मंदिर परिसर स्थित लक्ष्मी मंदिर में रखा गया।श्री उद्धव जी एवं कुबेर जी बदरीश पंचायत के साथ विराजमान हो गये।
कपाट खुलने के पश्चात मंदिर में शीतकाल में ओढे गये घृत कंबल
को प्रसाद के रूप में वितरित किया गया। माणा गांव द्वारा तैयार हाथ से बुने गये घृतकंबल को कपाट बंद होने के अवसर पर भगवान बद्रीविशाल को ओढ़ाया जाता है।
श्री बदरीनाथ धाम के कपाट खुलने के साथ ही मानवमात्र के रोग शोक की निवृत्ति, आरोग्यता एवं विश्व कल्याण की कामना की गयी।
भगवान बदरीविशाल की प्रथम पूजा-अर्चना देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी की तरफ से मानवता के कल्याण आरोग्यता हेतु संपन्न की जा रही है। आन लाईन बुक हो चुकी पूजाओं को यात्रियों की ओर से उनके नाम संपादित किया जायेगा।
श्री बदरीनाथ धाम के कपाट खुलने के साथ ही मंदिर परिसर में स्थित माता लक्ष्मी मंदिर,श्री गणेश मंदिर, हनुमान जी, भगवान बदरी विशाल के द्वारपाल घंटाकर्ण जी का मंदिर परिक्रमा स्थित छोटा मंदिर तथा आदि केदारेश्वर मंदिर, आदि गुरू शंकराचार्य मंदिर के द्वार खुल गये।
माणा के निकट स्थित श्री माता मूर्ति मंदिर तथा श्री भविष्य बदरी मंदिर सुभाई तपोवन के कपाट भी श्री बदरीनाथ धाम के कपाट खुलने के साथ ही खुल गये है। बदरीनाथ स्थित खाक चौक में हनुमान मंदिर के द्वार भी आज खुल गये है।
साभार : भूपेंद्र कण्डारी
*🚩यात्रा के पुनीत प्रसंग पर🚩*
पौराणिक काल से तीर्थाटन के लिए पैदल यात्रा की परम्परा विकसित हुई थी। मोटर मार्गों के प्रचलन से यात्रा की यह विधा धीरे धीरे लुप्त होती गई। पैदलयात्रा मार्ग को आधार मान कर ही वर्तमान परिवहन मार्गों का निर्माण हुआ है। इस सम्पूर्ण मार्ग में चट्टी (पड़ाव) व्यवस्थाएं थीं।
हरिद्वार से जहां एक ओर ऋषिकेश, देवप्रयाग होकर केदारनाथ तथा बद्रीनाथ तक चट्टियों की श्रृंखला थी, वहीं दूसरी ओर हरिद्वार, देहरादून, मसूरी होकर धरासू तथा यमुनोत्री व गंगोत्री तक ये चट्टियां यात्रियों को सब प्रकार की सुविधाएं प्रदान करती थीं। बद्रीनाथ से कर्णप्रयाग लौटकर वहां से रामनगर की ओर मार्ग जाता था। इसमें आदिबदरी, भिकियासैंण, कोट आदि प्रमुख चट्टियां थीं।
इस प्रकार सैकड़ों चट्टियां सारे पर्वतीय क्षेत्र के लोगों को इस तीर्थ/पर्यटन उद्योग से जोड़ती थीं। इनमें असंख्य तीर्थयात्रियों के ठहरने व भोजन की हर समय व्यवस्था रहती थी। इनका परिवेश पूर्णतया आत्मीयतापूर्ण तथा घरेलू था। देशभर से आए यात्रियों को हिमालय की संस्कृति परम्परा को निकट से देखने, समझने का अवसर भी प्राप्त होता था। यातयात के विकास से पूर्व तक यह व्यवस्था सशक्त बनी रही। पहाड़ के स्थानीय समाज की आर्थिकी का यह भी एक बड़ा स्रोत था।
जिन पैदल मार्गों पर सदियों से ऋषि, मुनि, तपस्वी तथा केरल के कालड़ी से चलकर स्वयं आदिशंकराचार्य तीर्थाटन को आए, वे मार्ग, वह व्यवस्था आज उपेक्षित है, अव्यवस्थित है, जिसे आज पुनरोद्धार की दरकार है।
साभार : प्रेम बड़ाकोटी
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